पत्रकारिता की ठसक



पत्रकारिता की ठसक और रुआब कुछ अलग ही होता है। आज कलजुगी पत्रकारों के लंबे बाल, एक-एक हथ में तीन-तीन मोबाइल और वेब कैमरे ये सब इनकी पहचान बन गए हैं। अगर आप असली पत्रकार हैं ता निश्चित मानिए कि आपको कुछ भी कम है पर पत्रा कार कदापि नहीं।

    इधर पत्रकार और पत्रकरिता दोनों के मयने ही बदल गए हैं। आपकेपास यदि टुठी साइकिल भी है तो उस पर प्रेस ज़रूर लिखा होना चाहिए। भले ही आप अपने हाथ से कम्पूटर पर बनाकर और नकली मुहर लगा लें पर एक चमकदार आईकार्ड गले में हार की तरह ज़रूर झुलना चहिए।

       समान्य जनता की भाषा में ये मोबाइल , कैमरे और गले में झूलते आई कार्द-हार ही पत्रकारिता के असली आभूषण है। देसवह व समाज की चिंता में लिखे गए ओजस्वी संपादकीय आदि तो बस भगमंगई को निमंत्रण देने के अलवा कुछ और दे ही नहीं सकते। इसी लिए आज के पत्रकार का अर्थ और उसकी परिभषा जाने के लिए किसी शब्दकोश की शराण में जाने करने का तोतला या हकला जो भी सटीक बैठे, प्रयास कर रहें हैं।
हो सकता है हमारे प्रिय पाठक
पत्रकार का कुछ अलग अर्थ लेले होंऔर इन मोधवी और होनहार रष्ट्रभक्त पत्रकारों को पहचनने के लिये कोई अलग मानदंड़ अपनाते हों पर जेअसा अमूम होता है उसी परंपरा के आधार पर हम इनकी फचान के प्रमुख गुण धर्मों की इस एपिसोड यानी स्तंभ में चर्चा कर रहे हैं। 'कार' एक प्रत्यय है जिसका अर्थ होता है रचनेया करने वाला अर्थात् क्रता। यह सीधे कर्ता को। इसे और स्पष्ट करने के लिए मैं दो शब्द उदाहरण स्वरूप देना चाहता हूँ।; ये चिरपरिचित शब्द हैं - {1} नाटककार और {2} खानीकार। जैसा कि खानी और नाटक में 'कार' जोड़कर उसके मूल लेखक का अर्थ निकाला जाता है। ऐसे ही अगर पत्रकार का मूल अर्थ लिया जाए तो स्पष्ट है कि किसी भी समाचर पत्र या पत्रिका को उसके   रूप-रंग  से लेकर उसमें प्राणों तक का संचार करने वाले को ही पत्रकार खा जाना चाहिए।

पत्रकार द्वारा किसी भी अखबार में सचरित किया जान वाला प्राण तत्व या उसकी आत्मा है उसकी विषयवस्तु जो देश और समाज में चेतना का संचार करती है। ले किन इधर गली-कूचे में घूम-घूम और अटक-अटक कर चटपटे शब्दों में झूठे-सच्चे समाचार संकलित करके परोसने वाले को ही पत्रकार खा जाने लगा है। यद्यपि इस सूचना को संग्रह करके प्रेस तक पहुंचाने वाले को 'संवाददाता' जैसा विशिष्ट और परिभाषिक शब्द फले ही दिया जा चुका है फिर भी ये संवाददाता और मीडिया से डरें हुए समाज के अन्य लोग भी इन्हें पत्रकार से कम कीमत देने को किसी भी कीमत पर  तैयार  नहीं होते।

इधर मुक्ति की खुशी में एक दिन अपना गिरगिट भी आज़ादी के किसी समरोह में पहुंच गया। उसका संपादकीय और पत्रकारिता का समुचा काम चेतना का पक्षधर माना जाता रहा है। उसके पास आज भी एक अखबार के संपादन का दायित्व है। लेकिन जब वह तथा कथित पुर्वोक्तन पत्रकारी घनों को बिना ओढे-बिछाए प्रेस गैलरी में बैठने लगा तो उस पर समूचा सुचना एवं जनसंपर्क विभाग ही वज्र सा भरभराकर गिर पड़ा। खैर1 खुदा का शुक्र खो जो वह साइड में हो गया वरना द्दहीचि जैसे त्यागी इन पत्रकारों की अस्थियों से बन वज्र से इस मरियल गिरगिट की गर्दन ही झूल जाती।

 उस समारोह से वह सीधा मेरे पास आया और बोला अमा गुणशेखर!! ये टुटपुँजिए पत्रकार भला अपने को समझते क्या हैं? मैने पूछा खो क्या हुआ गिरगिट? इस पर वह अपनी गर्दन हिलाते हुए बोला कि एक झोला छाप टुटपुंजिए पत्रकार नुमा प्राणी जो मुटके चूहे-सा जरूरत पूरी प्रेस गैलरी में इधर-उधर उछल रहा था, सरे आम मेरी इज्जत सर्फ एक्सेल से धो दी। बात ये थी कि उस गैलरी में भुत सारी कुर्सियाँ खाली पड़ी थीं। मैंने सोचा इनमें से किसी एक में धँस जाँऊ और मजे से सो लूँ। वह इसलिए कि तेरी भाभी मेरी अंगूठी के चलते पूरी दो रातों से सोने ही नहीं दिया है। मेरी मंशा थी कि बस एक बार किसी कुर्सी में फिट हो जाऊँ तो किसी लंबे और यहाँ तो तेरी भाभी भी नहीं ढूँढ़ पाएगी।

गिरगिट खिसियाहट के साथ बोला अमार यार ऐसे टुटयुँजियों की जब ऐसी गजब की ठसक और हनक है तो बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाताओं का क्या हाल होगा? यदी कभी उनके साथ इस प्रेस गैलरी में बैठने की जुर्रत की तो शायद पटक-पटक के मारा जाऊँगा। धन्य है ये कलजुगी पत्रकार।

-गुणशेखर