मेरी सोई हुई संवेदना
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उस दिन जब तुम्हारी उँगलियाँ
दब गई थीं किवाड़ में
मेरी उँगलियों में भी
लहू छलछला आया था
पोर-पोर में टीस उभरी थी
सो न सका था उस रात
माथे पर छलक आई थीं
पसीने की बूंदें
साँसें हो गई थीं तेज
छाती के भीतर
धधक उठा था ज्वालामुखी
पर,
आज जब कट गया है
तुम्हारा हाथ
न तो छाती गरम हुई है
और न ही आई हैं
माथे पर पसीने की बूंदें
सुना है तुम किसी अस्पताल के
आई.सी.यू. में हो
आऊं भी तो पहचानोगे कैसे
शायद कल तक होश में भी आ जाओ
इस लिए कल आऊंगा तुम्हें देखने
साथ में लाऊंगा सेब, संतरे
और, मीठे-मीठे अनार
छील-छील कर अपने हाथों से
तुम्हें खिलाऊंगा
लेकिन एक बार तुम्हारे
कटे हाथ से
वह संवेदना ज़रूर कुरेदना चाहूँगा
जो दुबक कर सो गई है
मेरी ठंडी छाती के
किसी कोने में.
डॉक्टर गंगा प्रसाद शर्मा "गुणशेखर"