किसी लोकल ट्रेन से मैं भी आ रहा हूं पिता!
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पिता! जाने के ठीक पहले,उस दिन
तुमने पुकारा था मुझे
जैसे पुकारा करते थे कभी
लेते थे गोद और
सामने पड़ते ही उठा लगा लेते थे गले/
तुम्हारे एक चुंबन की गरमाहट से बीत जाता था/
खुशी-खुशी जाड़े का दिन।
उस दिन भी तुम्हारी पुकार हवा में गूंजी थी
तुम्हारे वात्सल्य को चूमने /
पेड़ थोड़ा झुक आए थे
पक्षी चहचहए थे
उस दिन भी पहले जैसा ही हो आया था धुंधलका
पर, तुम्हारी आंखें कुछ अधिक डरी हुई थीं
कुछ-कुछ बड़ी भी हो गई थीं /
होंठ बहुत देर तक बुदबुदाए थे
सूरज की लाली कुछ मैली-मैली सी हो गयी थी उस दिन
शायद तुम मुझे ढूंढने निकल गए थे
दुर बहुत दुर
बहुत देर तक पुकारते रहे थे /
फ़िर भी ना मिल सका था मैं /
तुमहे मैं खोज रहा हूं बदहवाश /
गोधूलि में, रजनी में
तुम भी वैसे ही खो गए हो मुझसे
जैसे फिसल गया हो किसी माँ के आँचल से
उसका दुधमुँहा शिशु
जैसे खो गया हो किसी का ईश्वर
हां कहीं-कहीं दिखते है तुम्हारे धुंधले पदचिन्ह
कहीं-कहीं मिट भी गए हैं
अगर मेरी आवाज तुम तक पहुंच रही हो
तो ठहर जाना
थोड़ी देर सुस्ता लेना
किसी पेड़ की ठंडी छांव में
मैं आ रहा हूं
किसी लोकल ट्रेन से
मैं भी आ रहा हूं पिता!
-गंगा प्रसाद शर्मा